

शिव दयाल मिश्रा
कोरोना महामारी का प्रकोप झेलते हुए लगभग 9 माह हो चुके हैं। मगर कोरोना अभी तक जाने का नाम ही नहीं ले रहा है। कभी कम तो कभी ज्यादा। कभी इस शहर में ज्यादा तो कभी उस शहर में ज्यादा। यानि कोरोना का जनता और सरकार के साथ लुकाछिपी का खेल चल रहा है। हालांकि हारना तो कोरोना को ही है। मगर सरकार द्वारा जितने भी प्रयास किए जा रहे हैं। वे पूरी तरह कारगर नहीं हो रहे हैं। सरकार द्वारा कोरोना के खिलाफ बचाव के तरीकों का प्रचार भी खूब किया जा रहा है। बड़े-बड़े होर्डिंग, पोस्टर और जगह-जगह सार्वजनिक स्थानों पर भी संकेतक (गोले) बनाकर प्रचार और समझाईश की जा रही है। मगर इन प्रचार सामग्री और संकेतक केवल दिखावे के लिए है। इस समय जितने कोरोना मरीजों की संख्या वृद्धि और मृत्यु हो रही है उससे तो लगता है कि सरकार सिर्फ कागजी प्रचार में ज्यादा सक्रिय है। उदाहरण के लिए बस और ट्रेनों में कहां दो गज की दूरी दिखाई देती है। बसों में सीट टू सीट तो सवारियां बैठ ही रही है। सवारियों की भीड़ भी बसों में देखी जा रही है। मिनी बसों में तो धक्का-मुक्की तक हो रही है। शादी विवाहों में संख्या से ज्यादा लोग शामिल हो रहे हैं। बसों में कितने ही लोग बिना मास्क के चढ़ रहे हैं। अगर मास्क लगा भी रखा है तो वह सिर्फ ठोडी के नीचे लटक रहे हैं। कई सवारियां तो बस में चढ़ते ही मास्क हटा लेती हैं। बगल में बैठी सवारी अगर इसका विरोध करती है तो बिना मास्क की सवारी उससे झगडऩे लगती है। बस में चढऩे से पहले टिकट खिड़की पर दिखाने के लिए संकेतक (गोले) तो बना रखे हैं, मगर जैसे ही टिकट मिलना शुरू होता है। सब टिकट खिड़की पर झूम जाते हैं। कोई उन संकेतकों पर खड़ा नहीं रहता। यानि जहां भी किसी काम के लिए काउन्टर पर कोई लाइन लगती है तो वहां कोई डिस्टेंसिंग नजर नहीं आती है और मास्क भी कुछ लोगों के मुंह पर जरूर तरीके से लगा होता है वरना या तो होता नहीं है और होता है तो वह ठोडी पर ही लटका नजर आता है। बाजारों में या माल में सामान लेने जाओ तो वहां कोई डिस्टेसिंग नहीं नजर आती है। हां कोरोना से बचाव के लिए चारों तरफ पोस्टर, हिदायतें और जनता की लापरवाही जरूर दिखाई दे रही है। पर धरातल पर तो कोरोना से लड़ाई शून्य ही नजर आती है।
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